डॉ. अजय कुमार डंडौतिया
शरीर और मन व्यक्तित्त्व के दो पहलू हैं। हमारी शारीरिक स्थिति का प्रभाव मानसिक स्थिति पर और मानसिक स्थिति का प्रभाव हमारे शारीरिक कार्यों पर पड़ता है। हमारे शास्त्रों में कहा भी गया है कि तन स्वस्थ तो मन स्वस्थ और मन स्वस्थ तो तन स्वस्थ। वर्तमान मानव आधुनिकता के रंग में रंग चुका है। वह संपूर्ण प्रकृति से खिलवाड़ कर रहा है। वह लगातार प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन कर रहा है। फलस्वरूप अनेक रोगों का शिकार हो रहा है यथा कैंसर, एड्स, मधुमेह, हृदय रोग, राजयक्ष्मा, तनाव, चिंता, अवसाद आदि। प्रकृति के साथ खिलवाड़ के कारण वर्तमान में नए-नए रोग विकसित हो रहे हैं साथ ही अनेक चिकित्सा पद्धतियों का भी विकास हो रहा है किंतु योग को छोड़कर अभी तक ऐसी कोई चिकित्सा पद्धति विकसित नहीं हो सकी है जो शरीर और मन की समग्र चिकित्सा कर सके। इस शोध में योग के माध्यम से शरीर एवं मन दोनों की चिकित्सा की गई है।
मन एवं शरीर को संयमित करने के लिए सर्वप्रथम इंद्रियों का संयमित होना परम् आवश्यक है। इसके लिए महर्षि पतंजलि ने मन के विकारों को दूर करने के लिए यम-नियम का सर्वप्रथम वर्णन किया है। चित्त (मन) की एकाग्रता के लिए उन्होंने संयम (धारणा, ध्यान, समाधि) पर बल दिया है। महर्षि पतंजलि ने धारणा, ध्यान एवं समाधि के सम्मिलित रूप को संयम कहा है। सर्वप्रथम मन की एकाग्रता के लिए धारणा का अभ्यास किया जाता है। महर्षि पतंजलि धारणा के संबंध में कहते हैं ’देशबन्धश्चचित्तस्य धारणा’ अर्थात् किसी विशेष स्थान (देश) में चित्त (मन) को स्थिर कर देना ही धारणा है। आगे वे कहते हैं कि धारणा की स्थिति लगातार बने रहना ही ध्यान है। ध्यान के द्वारा इंद्रियाँ नियन्त्रित एवं संयमित हो जाती हैं। मन की चंचलता समाप्त हो जाती है और मन स्थिर हो जाता है। स्थिर मन की स्थिति में अनेक सफलताएँ (सिद्धियाँ) प्राप्त की जा सकती हैं। ध्यान एक ऐसी क्रिया है जिसके माध्यम से अनेक मनोशारीरिक समस्याओं का समाधान संभव है।
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